Yoga

योग का अर्थ एवं परिभाषा:

योग, एक प्राचीन भारतीय ध्यान और शारीरिक अभ्यास का प्रणाली है, जिसका उद्देश्य शारीरिक, मानसिक, और आध्यात्मिक स्वास्थ्य को संतुलित और समृद्ध करना है। योग के माध्यम से शरीर, मन, और आत्मा के बीच संतुलन और एकाग्रता प्राप्त की जाती है। योग के अभ्यास से साधक अपने जीवन में स्वास्थ्य, आरोग्य, शांति, और आनंद को बढ़ाने के लिए साधनाएं करता है।
योग विभिन्न आसनों, प्राणायाम, ध्यान, और धारणा की माध्यम से मानसिक और शारीरिक संतुलन को प्राप्त करने में मदद करता है।

 

Yog and Ashtang Yog
Yog and Ashtang Yog
‘योग’ शब्द की उत्पत्ति संस्कृत भाषा की युजिर’ धातु से हुई है, जिसका अर्थ है- बाँधना, युक्त करना, जोड़ना, सम्मिलित होना, एक होना। इसका अर्थ संयोग या मिलन भी है।
महादेव देसाई के अनुसार- “शरीर, मन और आत्मा की समग्र शक्तियों को परमात्मा से संयोजित करना योग है।” 
कठोशनिषद् में योग के विषय में कहा गया है- “जब पाँचों ज्ञानेन्द्रियां मन के साथ स्थिर हो जाती है और मन शान्त हो जाता है, जब बुद्धि स्थिर (अचंचल) हो जाती है तब उसमें शुभ संस्कारो की उत्पत्ति और अशुभ संस्कारों का नाश होने लगता है। वह बन्धन मुक्त हो जाता है। यही अवस्था योग है।

योग की परिभाषा

महर्षि पतंजलि ने योग को परिभाषित करते लिखा है, “योगश्चित्त वृत्ति निरोध:” अर्थात चित्त की वृत्तियों को रोकना ही योग है 
योग, चित्त वृत्तियों का निरुद्ध होना है। अर्थात् योग उस अवस्था विशेष का नाम है, जिसमें चित्त में चल रही सभी वृत्तियां रूक जाती हैं। चित्त की सम्पूर्ण वृत्तियां को विभिन्न अभ्यासों के माध्यम से रोक देने की अवस्था समाधि या योग कहलाती है।
हमारा चित्त तरह-तरह की वस्तुओं, दृश्यों, स्मृतियों, कल्पनाओं, वासनाओं आदि में हमेशा उलझा रहता है, जिन्हें मन की वृत्ति भी कहा जाता है। जब हमारा चित्त इन सभी वृत्तियों से बाहर आ जाता है, या जब चित्त में किसी भी प्रकार की हलचल नहीं होती है यही स्थिति योग कहलाती है। 
महर्षि पतंजलि ने योग को परिभाषित करते हुए यह भी कहा है, “युज्यते असौ योग:” अर्थात ‘जो जोड़े वही योग है’, अर्थात् आत्मा व परमात्मा को जोड़ना ही योग है।
पतंजली योग सूत्र के अनुसार, चित्त की सम्पूर्ण वृत्तियों का निरोध अथवा चित्त का बिलकुल शान्त हो जाना समाधि की अवस्था कहलाती है।
भगवद गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है “योग: कर्मसु कौशलम्” अर्थात कर्म करने का कौशल ही योग है
अर्थात निष्काम भावना से अनुप्रेरित होकर कर्त्तव्य करने का कौशल ही योग है। एवम् दुःख-सुख, लाभ-हानि, शत्रु-मित्र आदि द्वन्द्वों में सर्वत्र समभाव रखना योग है। “

योग के प्रकार

भारतीय योग शास्त्रियों के अनुसार योग 8 प्रकार का होता है-
  1. हठयोग
  2. लययोग
  3. राजयोग
  4. भक्तियोग
  5. ज्ञानयोग
  6. कर्मयोग
  7. जपयोग
  8. अष्टांगयोग

योग के उद्देश्य (लाभ) | योग का महत्व:

 

1. शारीरिक स्वास्थ्य: योग अभ्यास से शारीरिक समर्थता, संतुलन, और लचीलापन बढ़ता है। योगासन और प्राणायाम से रक्त संचार बेहतर होता है और रोगों का सामना करने की क्षमता बढ़ती है।
2. मानसिक स्वास्थ्य: योग ध्यान और धारणा के माध्यम से मानसिक तनाव, चिंता, और उत्सुकता को कम करता है। योग से मन की शांति, स्थिरता, और आत्मविश्वास बढ़ता है।
3. आध्यात्मिक विकास: योग साधना से व्यक्ति अपने आत्मा के साथ संपर्क स्थापित करता है और आध्यात्मिक उन्नति की दिशा में अग्रसर होता है।
4. संतुलित जीवन: योगाभ्यास से शारीरिक, मानसिक, और आध्यात्मिक संतुलन प्राप्त होता है, जिससे व्यक्ति अपने जीवन को संतुलित और समृद्ध बनाने में सक्षम होता है।
5. रोग प्रतिरोधक क्षमता: योगाभ्यास से शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता मजबूत होती है और व्यक्ति विभिन्न बीमारियों से बचाव कर सकता है।
6. प्रकृति विरोधी जीवनशैली में सुधार करना।
7. वृहत-दृष्टिकोण का विकास करना।
8. उत्तम शारीरिक क्षमता का विकास करना।
9. शारीरिक रोगों से मुक्ति पाना।
10. समस्त व्यसनों जैसे मदिरापान तथा मादक द्रव्य व्यसन से मुक्ति पाना।
11. मनुष्य का दिव्य रूपान्तरण।
इन सभी कारणों से, योग अपने व्यापक लाभों के लिए एक महत्वपूर्ण ध्यान और शारीरिक अभ्यास के रूप में माना जाता है।

 

Benefits of Yoga
Benefits of Yoga

 

अष्टांग योग – Ashtanga Yoga

अष्टांग का अर्थ है “आठ अंग” यह योग के आठ अंग या शाखाएँ है। जो कि पतंजलि के योग सूत्र में वर्णित है।
अष्टांग योग में शरीर, मन और प्राण की शुद्धि तथा परमात्मा की प्राप्ति के लिए आठ प्रकार के साधन बताये हैं, जिसे अष्टांग योग कहते हैं। योग के ये आठ अंग हैं – 
  1. यम  [नैतिकता ]
  2. नियम [आत्म-शुद्धिकरण और अध्ययन]
  3. आसन [मुद्रा]
  4. प्राणायाम [सांस नियंत्रण]
  5. प्रत्याहार [भावना नियंत्रण]
  6. धारणा [एकाग्रता]
  7. ध्यान [ध्येय वस्तु के चिन्तन में लीन हो जाना]
  8. समाधि [ध्यान की चरम अवस्था] 
Parts of Ashtang Yog
Parts of Ashtang Yog
इनमें पहले 4 साधनों का संबंध मुख्य रूप से स्थूल शरीर से है। ये सूक्ष्म से स्पर्श मात्र करते हैं। इसलिए इन्हें बहिरंग साधन कहते हैं
जबकि बाद के 4 साधन शरीर को गहरे तक स्पर्श करते हुए उसका परिष्कार करते हैं इसीलिए इन्हें अंतरंग साधन कहा गया है। 
प्रारंभिक 4 अंगों के लम्बे अभ्यास व पालन करने के बाद ही प्रतिहार, धारणा, ध्यान और समाधि (मुक्ति) का अभ्यास संभव है

1- यम | Yamas

यम का अर्थ है चित्त को धर्म में स्थित रखने के साधन ।
यम  5 प्रकार के हैं, जो व्यक्तिगत नैतिकता से संबंधित हैं। ये हैं:
  1. अहिंसा: मन, वचन व कर्मद्वारा किसी भी प्राणी को किसी तरह का कष्ट न पहुंचने की भावना अहिंसा है।
  2. सत्यः  स्वयं की बुद्धि से समझा गया, स्वयं की आंखों से देखा गया और कानों से सुना गया तथा उसे वैसे ही व्यक्त कर देना सत्य है
  3. अस्तेयः मन, वचन, कर्म से चोरी न करना, दूसरे के धन का लालच न करना अस्तेय है। 
  4. ब्रह्मचर्य: इंद्रियों को संयमित रखना तथा इंद्रिय सुखों विशेषकर यौनिक सुख  के अधीन ना होना ब्रह्मचर्य कहलाता है।
  5. अपरिग्रहः अनायास प्राप्त हुए सुख के साधनों का त्याग अपरिग्रह है। स्वार्थ के लिए धन, संपत्ति तथा भोग सामग्रियों का संचय करना भी अपरिग्रह है।

2- नियम | Niyam

नियम भी 5 प्रकार के हैं, जो आत्म-शुद्धिकरण और अध्ययन से संबंधित हैं। ये हैं:
  1. शौचः शरीर एवं मन की पवित्रता शौच है। शरीर को स्नान, सात्विक भोजन, षटक्रिया आदि से शुद्ध रखा जा सकता है। मन की अंत:शुद्धि, राग, द्वेष आदि को त्यागकर मन की वृत्तियों को निर्मल करने से होती है।
  2. संतोष: अपने कर्तव्य का पालन करते हुए जो प्राप्त हो उसी से संतुष्ट रहना या परमात्मा की कृपा से जो मिल जाए उसे ही प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार करना संतोष है।
  3. तपः स्वयं से अनुशाषित रहना अर्थात सुख-दुख, सर्दी-गर्मी, भूख-प्यास आदि द्वंद्वों को सहन करते हुए पूर्ण अनुशासन के साथ अपने कर्तव्यों को करते रहना।
  4. स्वाध्यायः विचार शुद्धि और ज्ञान प्राप्ति के लिए आत्मचिंतन, विद्याभ्यास, धर्मशास्त्रों का अध्ययन, सत्संग और विचारों का आदान-प्रदान स्वाध्याय है।
  5. ईश्वर प्रणिधान: मन, वाणी, कर्म से ईश्वर की भक्ति और उसके नाम, रूप, गुण, लीला आदि का श्रवण, कीर्तन, मनन और समस्त कर्मों का ईश्वरार्पण ‘ईश्वर प्रणिधान’ है।

3- आसन | Asana

आसन शरीर को किसी विशेष मुद्रा अथवा स्थिति में लाकर शरीर के किसी अंग अथवा तन्त्र को साधने एवं नियंत्रित करने का तरीका है जिनके करने से शरीर एवं मन पर संयम होता है। आसनों की सिद्धि से नाड़ियों की शुद्धि, आरोग्य की वृद्धि एवं शरीर व मन को स्फूर्ति प्राप्त होती है। 

4- प्राणायाम | Pranayama

श्वास और प्राण का नियमन करना प्राणायाम है। यह मन की अस्थिरता को नियंत्रित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। जैसे शरीर को शुद्ध करने के लिए स्नान आवश्यक है, ठीक उसी तरह मन को शुद्ध करने के लिए प्राणायाम अत्यंत आवश्यक है। प्राणायाम से हम स्वस्थ और रोगमुक्त होते हैं, लंबी आयु प्राप्त करते हैं, हमारी स्मृति शक्ति बढ़ती है और मानसिक स्थिरता अर्जित होती है, और मस्तिष्क के रोग दूर होते हैं।

5- प्रत्याहार | Pratyahara

इंद्रियों को वश में करना और उन पर विजय प्राप्त करना प्रत्याहार के रूप में जाना जाता है। चित्त को चंचल, विक्षिप्त करने वाली इंद्रियों के विषय वासनाओं को दूर करके अंतर्मुखी करने की स्थिति को प्रत्याहार कहा जाता है।

6- धारणा | Dharana

धारणा मन की स्थिरता का माध्यम होती है। इन्द्रियों और मन को भौतिक विषयों से हटाकर सूक्ष्म लक्ष्य (ध्येय विषय) पर एकाग्रचित्त करना ही धारणा कहलाता है।

7- ध्यान | Dhyan

एक स्थान या वस्तु पर निरन्तर मन का स्थिर होना ही ध्यान है। जब ध्यान की विषय वस्तु के चिंतन में चित्त लीन हो जाता है, तब उसे ध्यान कहा जाता है। पूर्ण ध्यान की स्थिति में किसी अन्य विषय का ज्ञान या स्मृति चित्त में प्रवेश नहीं करती।

8- समाधि | Samadhi

समाधि ध्यान की पराकाष्ठा है, जिसमें चित्त पूरी तरह से ध्येय वस्तु के ध्यान में लीन हो जाता है और उसका स्थूल जगत से कोई संबंध नहीं रहता। योग दर्शन में समाधि को मोक्ष की प्राप्ति का एक मार्ग माना जाता है।
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