Swami Vivekananda Jayanti :
Swami Vivekanand Janm Jayanti को राष्ट्रीय युवा दिवस (National Youth Day) के रूप में मनाया जाता है।
‘उठो, जागो और तब तक मत रुको जब तक लक्ष्य की प्राप्ति ना हो,’ स्वामी विवेकानंद का यह कथन हमेशा से युवाओं के लिए अपने लक्ष्य की प्राप्ति करने का मूल मंत्र रहा है।
12 जनवरी का दिन इस प्रेरक विचार के प्रणेता स्वामी विवेकानन्द की जन्म जयंती का दिवस है। यह दिवस, स्वामी विवेकानन्द को और उनके अनमोल विचारों को स्मरण करने का और उनसे प्रेरणा लेने का अवसर भी है।
स्वामी विवेकानंद जी के जन्मदिवस की अवसर पर पूरा राष्ट्र उन्हें नमन करता है। उनके द्वारा 1893 में शिकागो में आयोजित विश्व धर्म संसद में दिए गए ऐतिहासिक भाषण के बारे में नई पीढ़ी के सभी लोगों को जानना चाहिए कि किस प्रकार स्वामी जी ने धर्म के प्रति अपने क्रांतिकारी विचारों से विश्व का मार्गदर्शन किया।
उस ऐतिहासिक भाषण की संक्षिप्त विवेचना सभी युवाओं के ध्यान आकर्षण के लिए प्रस्तुत है।
11 सितंबर 1893 का दिन था जब अमेरिका के शिकागो में आयोजित धर्म संसद में स्वामी विवेकानंद ने जब अपना संबोधन शुरू किया तो वहां पर मौजूद समस्त श्रोता आश्चर्यचकित और मंत्र मुग्ध हो गए।
अपने संबोधन में स्वामी जी द्वारा भारतीय संस्कृति और विरासत के बारे में कह गए शब्द इतिहास में अंकित हो गए और आज शताब्दियां बीत जाने के बाद भी उनका वह विचारोत्तेजक संबोधन चर्चा का विषय रहता है और उसकी कल्पना मात्र ही आज भी रोमांचित कर देती है ।
अमेरिका के शिकागो शहर में 11 से 27 सितंबर, 1893 एक विश्व धर्मसंसद का आयोजन किया गया था जिसमें विश्व भर से विभिन्न धर्मों का प्रतिनिधित्व करने वाले 5,000 से अधिक धार्मिक अधिकारियों, विद्वानों और इतिहासकारों को आमंत्रित किया गया था। इस सभा को आधुनिक इतिहास में पहली वैश्विक अंतर-धार्मिक घटना माना जा सकता है।
भारत उस समय अंग्रेजों का एक उपनिवेश था और उसकी वैश्विक छवि विकास से कोसों दूर एक बहुत ही गरीब और असभ्य देश की थी। इस धर्म संसद में किसी भारतीय को वक्ता के रूप में आमंत्रण मिलना ही किसी भारतीय के लिए बहुत बड़ी उपलब्धि थी। और भारत से हिंदू धर्म की प्रतिनिधि के रूप में पहुंचे स्वामी विवेकानंद जी को कोई बहुत गंभीरता से नहीं ले रहा था परंतु अपने विलक्षण आभा मण्डल और वेशभूषा से वे आकर्षण का केंद्र तो बन ही चुके थे।
स्वामी जी का उद्घाटन सत्र में दिए गए भाषण के अंश
स्वामी विवेकानन्द ने 11 सितम्बर को संसद के उद्घाटन सत्र में बोलने के लिए मात्र 2 मिनट का समय दिया गया था। लेकिन जैसे ही स्वामी विवेकानंद ने अपना संबोधन शुरू किया, तो पूरा श्रोता वर्ग, जो उन्हें शुरू में गंभीरता से नहीं ले रहा था, उनकी वाणी सुनते ही से सम्मोहित और मंत्रमुग्ध हो गया।
जब उन्होंने अपना संबोधन ‘सिस्टर एंड ब्रदर ऑफ अमेरिका’ अर्थात ‘अमेरिका के मेरे भाइयों और बहनों’ कह कर शुरू किया तो पूरा सदन तालिया से गूंज उठा और उनके संबोधन के निर्धारित समय 2 मिनट तक तो लोग मंत्रमुग्ध होकर तालियां ही बजाते रहे।
शायद वहां पर उपस्थित सभी लोगों के लिए यह एक सीधे दिल में उतर जाने वाली बात थी कि कोई अनजान आदमी किसी अनजान देश के लोगों को एक मंच से अपना भाई और बहन कह रहा है। अन्यथा दुनिया भर के वक्ता तो सभी को ‘लेडिज एंड जेंटलमैन’ कह कर ही संबोधित कर रहे थे।
स्वामी विवेकानंद ने अपने संबोधन के पहले ही वाक्य से वहां पर उपस्थित लोगों के साथ एक आत्मीय संबंध जोड़ लिया। यही उनका वह ऐतिहासिक भाषण था जिसने पूरे विश्व को हिंदुत्व के महान आध्यात्मिक ज्ञान एवं दर्शन से परिचित कराया। एक तरह से यह भाषण दुनिया भर को भारत का एक प्रभावशाली परिचय था।
अपने संबोधन में विवेकानंद ने भगवद गीता (Bhagavad Gita) का उद्धरण दिया और हिंदू धर्म के विश्वास और सहिष्णुता के संदेशों का वर्णन किया। उन्होंने मानवीय मूल्यों के समर्थकों से “सांप्रदायिकता, कट्टरता और उसके भयावह उत्पाद धर्मान्धता” के खिलाफ लड़ने का आह्वान किया।
विवेकानंद जी ने सांप्रदायिकता को निशाने पर लेते हुए कहा कि, “उन्होंने पृथ्वी को हिंसा से भर दिया है, बार-बार इसे मानव रक्त से रक्त रंजित किया है, सभ्यताओं को नष्ट किया है और पूरे राष्ट्रों को निराशा के गर्त में डाल दिया है। यदि ये भयानक दैत्य नहीं होते, तो मानव समाज अब की तुलना में कहीं अधिक उन्नत होता……”
स्वामी विवेकानंद का यह भाषण उस धर्म संसद सहित पूरे अमेरिका में चर्चा का केंद्र बन गया। उन्हें उन्हें विश्वास ही नहीं हो रहा था कि नवयुवक सा दिखने वाला आकर्षक व्यक्ति एक धर्मगुरु है और वह दार्शन और आध्यात्म पर प्रवचन दे रहा है। इस संबोधन के बाद तो लोगों की उनके बारे में और भारत के बारे में जानने की उत्सुकता बढ़ गई।
दो सप्ताह बाद धर्म संसद के समापन में स्वामी विवेकानंद जी का पुनः संबोधन होना था और इस बार लोग उन्हें सुनने के लिए गंभीरता और उत्सुकता पूर्वक प्रतीक्षा कर रहे थे।
स्वामी विवेकानंद जी का समापन भाषण:
शिकागो, 27 सितम्बर, 1893
दो सप्ताह बाद विश्व धर्म संसद के समापन पर स्वामी विवेकानन्द ने फिर से भाषण दिया। उनके समापन भाषण के लिए लोगों में एक विशेष आकर्षण था और उन्होंने आशा अनुरूप फिर से सभी श्रोताओं को अपने विचारों से झकझोर दिया। उनके विचार सुनकर लोगों को मानो ऐसा प्रतीत हुआ कि आज तक जिसे वे लोग दर्शन और आध्यात्म समझ रहे थे वह तो बस एक बाहरी बात थी। स्वामी जी की बातों में उन्हे एक गहन तत्व नजर आया, उन्होंने आज तक ऐसा कुछ सुना ही नही था।
अपनी टिप्पणी में, उन्होंने प्रतिभागियों की प्रशंसा की और मानवीय मूल्यों के समस्त समर्थकों से एकजुट होने का आह्वान किया। उन्होंने कहा, “यदि विभिन्न धर्मों के लोग एक सम्मेलन में एकत्र हो सकते हैं, तो वे पूरी दुनिया में सभी लोग सह-अस्तित्व के सिद्धांतों का पालन करते हुए भी रह सकते हैं। विश्व की धर्म संसद में अलग अलग धर्मों के अनुयायियों का एक स्थान पर एकत्र होना इस बात को सिद्ध करता है कि महादयालु परमपिता ने उन लोगों की सहायता की है जिन लोगों ने इस आयोजन को सफलता पूर्वक संपन्न कराने के लिए निस्वार्थ समर्पण भाव से कड़ा श्रम किया है। उन महान आत्माओं को मेरा धन्यवाद, जिन्होंने इस महान कार्य को करने की कल्पना की और उसे साकार भी करके दिखाया। यहां मेरा सभी लोगों को बहुत-बहुत धन्यवाद जिन्होंने मेरे प्रति उदार भावनाएं प्रकट की, मैं यहां के प्रबुद्ध श्रोताओं को भी धन्यवाद ज्ञापित करता हूं जिन्होंने दुनिया के धर्मों के बीच में टकराव को रोकने के मेरे विचार को अपना सद्भावना पूर्ण समर्थन दिया।”
“बीच-बीच में कुछ असहमति के स्वर भी सुनाई दिए परंतु मैं उन्हें भी विशेष रूप धन्यवाद देना चाहता हूं जिन्होंने अपने अद्भुत विरोधाभास से सामान्य सद्भाव को और भी अधिक मधुर बना दिया है. धार्मिक एकता के सामान्य आधार के बारे में बहुत कुछ कहा गया है। मैं कोई अपने सिद्धांत को सर्वोच्च बता कर प्रस्तुत नहीं कर रहा हूं। लेकिन अगर यहां कोई यह आशा करता है कि धार्मिक एकता किसी एक धर्म की विजय और अन्य धर्मों के विनाश से आएगी, तो मैं उनसे कहता हूं, भाई, जो आशा आप कर रहे हैं ऐसा होना पूर्ण रूप से असंभव है”।
“भगवान ना करें कि कभी ऐसा हो कि सभी इसाई हिंदू बन जाएं अथवा सभी हिंदू या बौद्ध ईसाई बन जाएं। भगवान न करें।”
“जैसे बीज को भूमि में डाला जाता है, और उसके चारों ओर मिट्टी, हवा और पानी होता है। क्या बीज अपना अस्तित्व छोड़कर मिट्टी, वायु या जल बन जाता है? नहीं, यह एक पौधा ही बनता। यह अपने विकास के नियम के अनुसार ही विकसित होता है। वह मिट्टी, हवा और पानी को आत्मसात करता है, उन्हें पौधे के तत्वों में परिवर्तित कर देता है और एक पौधे के रूप में विकसित होता है।
धर्म के मामले में भी ऐसा ही है, न तो ईसाई को हिंदू या बौद्ध बनना है और न ही हिंदू या बौद्ध को ईसाई बनना है। लेकिन प्रत्येक को दूसरों की भावना को सम्मान देते हुए और आत्मसात करते हुए भी अपनी वैयक्तिकता को बनाए रखना होगा और विकास के अपने नियम के अनुसार बढ़ना होगा।”
“इस धर्म संसद ने दुनिया के सामने यह साबित कर दि या है कि दिव्यता, पवित्रता और उदारता दुनिया में किसी भी चर्च की विशेष संपत्ति नहीं है. और हर प्रणाली ने उच्च चारित्रिक गुणों के पुरुषों और महिलाओं का निर्माण किया है। यदि कोई अपने धर्म के अस्तित्व को बनाए रखने के लिए और उसके विस्तार के लिए दूसरे धर्म के नाश होने का सपना देखता है तो मैं उसे दया का पात्र मानता हूं”
“मैं उनसे कहना चाहता हूं कि जल्दी ही हर धर्म की ध्वजा पर उनके विरोध की बावजूद लिखा जाएगा कि: ‘मदद करें और लड़ें नहीं,’ ‘आत्मसात करें पर विनाश नहीं,’ ‘सद्भाव और शांति रखें और मतभेद नहीं।”
सम्मेलन के बाद
स्वामी विवेकानन्द का व्यक्तित्व और वक्तव्य विश्व धर्म संसद का मुख्य आकर्षण बन गए थे। धर्म संसद के समापन के बाद उन्हें जगह-जगह से संबोधन करने की आमंत्रण मिलने लगे। स्वामी विवेकानंद की विश्व को जानने की जिज्ञासा थी और वहां के लोगों में स्वामी विवेकानंद के विचारों के प्रति विशेष आकर्षण था जिस कारण उन्होंने अगले दो वर्ष अमेरिका और ग्रेट ब्रिटेन का दौरा करते हुए और जगह-जगह धर्म, हिंदुत्व, अध्यात्म और दर्शन से जुड़े हुए विषयों पर भाषण देते हुए बिताए।
1897 में वे भारत लौटे और उन्होंने यहां पर रामकृष्ण मिशन (Ramkrishna Mission) की स्थापना की, जो एक हिंदू धर्मार्थ संगठन है जो अभी भी मौजूद है।
अमेरिका और यूरोप में उनके विचारों का आकर्षण बढ़ता ही जा रहा था और उन्हें लगातार वहां आने के निमन्त्रण मिल रहे थे जिस कारण उन्होंने 1899 और 1900 में फिर से अमेरिका और ब्रिटेन का दौरा किया। वहां से लौट के दो साल बाद 4 जुलाई 1902 को उनकी मृत्यु हो गई।
आज के युग में स्वामी विवेकानंद जी के विचारों की प्रासंगिकता
आज के तथाकथित आधुनिक युग में जहां एक ओर विज्ञान और तकनीक अपने चरम पर है वहीं दूसरी ओर अनेक स्थानों पर धार्मिक उदारता के दायरे सिमटते जा रहे हैं। लोग जाने अनजाने में धर्मान्धता के शिकार होते जा रहे हैं जो कि मानवता के लिए एक नई चुनौती के रूप में सामने आ रहा है। ऐसी स्थिति में स्वामी विवेकानंद के विचार एक पथ प्रदर्शक के रूप में मानव समाज को एक रूढ़िवाद और धार्मिक कट्टरता से मुक्त उदार समाज के निर्माण करने का मार्ग प्रशस्त कर सकते हैं।
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सादर नमन