Respiration is the most prime and vital feature of all living beings — the very process that keeps organism alive.
The respiratory system helps our body exchange gases with the environment. Its main job is to bring oxygen into the body and remove carbon dioxide. It also warms, moistens, and cleans the air we breathe, keeping harmful particles out. The major organs of this system are the nose, sinuses, throat, voice box (larynx), windpipe (trachea), airways (bronchi), and lungs. The larynx has the vocal cords, which allow us to produce sounds and speak.
श्वसन तंत्र (Respiratory System)
श्वसन सभी जीवित प्राणियों की सबसे प्रमुख और आवश्यक विशेषता है — यही वह प्रक्रिया है जो जीव को जीवित रखती है।
सभी जीवों को जीवित रहने हेतु ऑक्सीजन की आवश्यकता होती है क्योंकि ऑक्सीजन की उपस्थिति में ही कार्बनिक पदार्थों (भोजन) का ऑक्सीकरण (विघटन) होता है जिससे ऊर्जा एवं मुक्त होती है व CO2 का निर्माण भी होता है।
भोज्य पदार्थों के ऑक्सीकरण की यही प्रक्रिया श्वसन (Respiration) कहलाती है।
श्वसन तंत्र और परिसंचरण तंत्र एक दूसरे के साथ गहरे समन्वय के साथ कार्य करते हैं। ये दोनों तंत्र एक दूसरे के पूरक हैं
श्वसन दो प्रकार का होता है
1.बाहरी श्वसन (External Respiration)
बाहरी अथवा वाह्य श्वसन फेफड़ों में सांस में ली गई वायु में उपस्थित ऑक्सीजन (O2) और रक्त में उपस्थित कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) के बीच आदान प्रदान की प्रक्रिया है।
अर्थात इसमें फेफड़ों में वातावरण की O2 रक्त द्वारा ग्रहण कर ली जाती है तथा रक्त में उपस्थित CO2 को सांस द्वारा शरीर से बाहर निकाल दिया जाता है। क्योंकि यह श्वसन क्रिया फेफड़ों (फुफ्फुसों- Lungs) में सम्पन्न होती है। इसलिए इसे फुफ्फुस श्वसन (Pulmonary respiration) भी कहा जाता है।
2- आन्तरिक श्वसन (Internal Respiration)
रक्त वाहिकाओं (धमनियों) द्वारा ऑक्सीजन युक्त रक्त प्रत्येक कोशिका तक पहुंचता है जहां पर रक्त में उपस्थित O2 कोशिकाओं द्वारा अवशोषित कर ली जाती है जिससे कोशिका में ऑक्सीकरण की प्रक्रिया होती है। इसके फलस्वरूप कोशिका में ऊर्जा एवं CO2 मुक्त होती है, मुक्त हुई CO2 रक्त में घुल जाती है जो कि रक्त वाहिकाओं (शिराओं) के द्वारा वापस फेफड़ो तक पहुंचती है
कोशिकीय स्तर पर O2 एवं CO2 की इसी आदान प्रदान को आंतरिक अथवा कोशिकीय श्वसन (Cellular Respiration) कहा जाता है। आंतरिक श्वसन में कोशिकाओं में ईंधन पदार्थों (ग्लूकोस) के ऑक्सीकरण से ऊर्जा का उत्पादन होता है जिससे हमारे शरीर के समस्त आंतरिक तंत्र तथा बाहरी अंग कार्य करने के लिए ऊर्जा प्राप्त करते हैं
श्वसन तंत्र के अंग – (श्वसन मार्ग)
- नासारंध्र, नाक Nasal Cavity →
- ग्रसनी, गला, Pharnx →
- स्वरयंत्र Laranx →
- श्वास नली Trachea →
- श्वसनी Bronchus →
- श्वसनिकाएं Bronchi ब्रोंकाई →
- वायु कोष्ठक Alveolies एलविओली →
- रुधिर blood →
- कोशिका cell →

1- नाक (नासिका) (Nostrils): मनुष्य में नासिका मुखद्धार के ठीक ऊपर स्थित होती है।
ये गोलाकार बाह्य नासिका छिद्र (External nostrils) होते हैं जो अन्दर की ओर दो अलग-अलग नली जैसी संरचना होती है एक उपास्थि से बनी नासा पट्टिका (Nasal septum) के द्वारा एक-दूसरे से अलग होते हैं। ये दोनों नलियां रोम युक्त होती हैं जो आगे छोटे से नासिका छिद्र खुलती हैं, जिसका छोटा सा ऊपरी भाग घ्राणक्षेत्र (Olfactory region) तथा मध्य और निचला भाग श्वसन क्षेत्र (Respiratory region) कहलाता है।
नाक के अलावा मुंह से भी सांस ली जा सकती है। विशेष परिस्थितियों को छोड़ कर हमेशा नाक से ही सांस लेनी चाहिए क्योंकि नाक के अन्दर छोटे-छोटे बाल होते हैं। ये बाल हवा में मिली धूल को बाहर ही रोक लेते हैं, अन्दर नहीं जाने देते।
2- गला Pharynx फैरेंक्स (ग्रसनी)
नासिका छिद्र गले में स्थित एक नली में खुलते हैं जिसे फैरेंक्स (Pharynx) कहते हैं। यह करीब साढ़े चार इंच लम्बी खोखली नली होती है।
3- स्वरयंत्र (Larynx लैरंक्स)
यह कार्टिलेज से निर्मित एक चैम्बर नुमा आकृति होती है जो ग्रसनी (Pharynx) को श्वासनली (Trachea) से जोड़ता है। यह कण्ठ या स्वरयंत्र कहलाता है। इसका मुख्य कार्य ध्वनि का उत्पादन करना है।
स्वरयंत्र के प्रवेश द्वार पर ऊतकों से बनी ढक्कन नुमा चपटी आकृति एपिग्लोटिस (Epiglottis) होता है जो भोजन निगलते समय श्वास नली का छिद्र बंद कर भोजन और द्रव को सांस नली में नहीं जाने देता है। साथ ही यह खाँसने, निगलने, श्वासोच्छवास तथा श्वसन मार्ग की सुरक्षा करने में सहायक होता है।
4- श्वास नली (ट्रेकिया Trachea)

लगभग 12 सेमी लंबी 16 मिमी व्यास की कार्टिलेज के रिंग से बनी सख्त ट्यूब होती है जिससे कभी यह सिकुड़ती नहीं है। ट्रेकिया के अंदर एपीथिलियम टिशू की चिकनी झिल्ली होती है जो म्यूकस में फंसी गंदगी को बाहर निकालने में सहयोग करती है । अग्रभाग पर ट्रेकिया दो भागों में बट जाता है, ट्रेकिया की दो भागो को श्वसनियों (Bronchi or Bronchus) कहते हैं जो दाएं और बाएं फेफड़े में प्रवेश करते हैं।
5- फेफड़े (Lungs लंग्स)

वक्ष गुहा (थोरेसिक कैविटी) में दो फेफड़े दाएं और बाएं स्थित होते हैं। मनुष्य का फेफड़ा स्पंजी (spongy) गुलाबी थैलीनुमा रचना है। ये इलास्टिक थैले होते हैं जिससे यह सांस लेने और छोड़ने पर फैल और सिकुड़ सकते हैं।
बायां फेफड़ा दाएं फेफड़े की अपेक्षा लगभग 10% छोटा होता है, क्योंकि बाएं फेफड़े में 2 लोब्स व दाहिने में 3 लोब्स होते हैं तथा बायां फेफड़ा हृदय को समायोजित करने के लिए थोड़ा सा स्थान बनाता है जिस कारण वह थोड़ा सा छोटा होता है।
श्वास नली फेफड़ों में प्रवेश करने से पहले दो शाखाओं में विभक्त हो जाती है जिन्हें ब्रोंकस (Bronchus) कहते हैं।
फेफड़ों में प्रवेश करने वाली ब्रोंकस (Bronchus) आगे चलकर छोटी छोटी बहुत सारी शाखाओं में बट जाते हैं जिन्हें श्वसनिकाओं (Bronchi – ब्रौंकाई) और आगे ये और सूक्ष्म श्वसनिकाओं (Bronchioles – ब्रौंकिओल) में लगातार विभाजित होती जाती हैं, जो अंत में गुच्छे नुमा आकृतियां बनाती हैं जिन्हें वायुकोष (Alveolies एलविओली) कहा जाता है।

मनुष्य के दोनों फेफड़ों में ऐसे करीब 480 मिलियन (million) वायुकोष (Alveolies एलविओली) पाए जाते हैं जहां पर रक्त और सांस में अन्दर ली गई वायु के बीच O2 एवं CO2 का आदान-प्रदान होता है।
फेफड़े प्लूरल गुहाओं (Pleural cavity) में सुरक्षित रहते हैं। प्लूरल गुहा के चारों ओर पतला आवरण होता है जिसे प्लूरल मेम्ब्रेन (Pleural membrane) कहते हैं। फेफड़ा और मेम्ब्रेन के मध्य म्यूकस जैसा चिकना तरल पदार्थ पाया जाता है जो फेफड़े के फैलते समय उसके वक्ष गुहा से होने वाले घर्षण से तथा बाहरी दबाव से बचाता है।
मनुष्य के प्रत्येक फेफड़े में लगभग 300 करोड़ वायुकोष (Alveolies एलविओली) अथवा Airsacs होते हैं।
6- डायाफ्राम (Diaphragm): दोनों फेफड़े थोरेसिक कैविटी में एक चौड़े अवतल मांसल आधार पर टिके होते हैं जिसे डायाफ्राम Diaphragm कहते हैं।
सांस भीतर लेते (inhalation) समय वक्ष गुहा की पसलियां फैलती हैं और डायफ्राम नीचे की ओर गति करता है जिससे वक्ष गुहा का आयतन बढ़ जाता है। जिस कारण वातावरण की वायु फेफड़े के अन्दर प्रवेश कर जाती है।
सांस बाहर छोड़ते (Exhalation) समय डायफ्राम संकुचित हो अपनी पूर्व अवस्था में आ जाता है व जाता है। वक्ष गुहा की पसलियां सिकुड़ने से वक्ष गुहा का आयतन कम हो जाता है जिस कारण फेफड़े के अन्दर की वायु बाहर निकलती है।
श्वसन की प्रक्रिया (Mechanisms of Respiration)
सांस लेने की प्रक्रिया को भौतिक विज्ञान की सिद्धांतों द्वारा समझा जा सकता है,
वायुमंडलीय दबाव व फेफड़ों के अंदर वायु के दबाव में परिवर्तन से सांस भीतर लेने (inspiration) और छोड़ने (expiration) की प्रक्रिया संपन्न होती है, वायु हमेशा उच्च दबाव (high pressure) से निम्न दबाव (low pressure) की तरफ बहती है
सांस अन्दर लेने की प्रक्रिया (Mechanism of Inspiration or Inhaletion)

सांस अन्दर लेने की प्रक्रिया में डायाफ्राम उत्प्रेरित होने पर नीचे की ओर जाता है जिससे फेफड़े फूल जाते हैं तथा बाहरी इंटरकोस्टल मांस पेशियां पसलियों को उठा देती है और चेस्ट कैविटी फूल जाती है।
फेफड़े फूलने पर चेस्ट कैविटी का आयतन बढ़ जाता है तथा फेफड़ों के अंदर वायु दाब कम हो जाता है। अतः वायुमंडल की वायु श्वास नली के द्वारा फेफड़ों में प्रवेश कर जाती है। फेफड़ों में प्रवेश करने पर वायु गर्म हो जाती है वह भी फेफड़ों को फुलाने में सहायक होती है।
सांस छोड़ने की प्रक्रिया (Mechanism of Expiration or Exhalation)

सांस छोड़ने की प्रक्रिया में सांस लेने की विपरीत क्रिया होती है। डायाफ्राम और इंटरकोस्टल मसल्स सिकुड़ने के पश्चात वापस अपनी मूल अवस्था में लौटती है तथा फेफड़ों का आयतन कम हो जाने के फलस्वरुप फेफड़ों के अंदर वायु का दबाव अधिक हो जाता है तथा फेफड़ों की वायु वायुमंडल (कब आयतन व कम दाब क्षेत्र) में बाहर चली जाती है
हवा कई गैसों का मिश्रण है कम ऊंचाई क्षेत्रों मैदानी पर हवा गरम विरल होती है तथा अधिक ऊंचाई पहाड़ों पर वायु ठंडे व अधिक घनत्व वाली हो जाती है
ऊचें स्थानों पर श्वसन तंत्र पर क्या प्रभाव पड़ता है ?

ऊंचे पहाड़ी क्षेत्रों में हवा में ऑक्सीजन की मात्रा कम हो जाती है अतः उन्हें हमेशा सांस लेने में काफी वायु खींचनी पड़ती है जिस कारण से उनकी फेफड़े मैदानी क्षेत्रों में रहने वाले लोगों की अपेक्षा बड़े होते हैं और उनकी रक्त नलिका बहुत शाखाओं वाली होती है जिससे वह निचले स्थानों पर रहने वाले लोगों की अपेक्षा उनके हृदय की क्षमता अधिक होती है। पहाड़ी क्षेत्रों के लोगों के खून में 30% ज्यादा लाल रक्त कणिकाएं होती है लेकिन उन्हें एक तिहाई ऑक्सीजन कम मिलती है इस कारण से वे कम ऑक्सीजन की भरपाई कर लेते हैं।
इसलिए लंबी दूरी के धावकों की ऑक्सीजन क्षमता बढ़ाने के लिए उन्हें ऊंची पहाड़ी स्थान पर अभ्यास कराया जाता है।
हिमाचल प्रदेश के शिलारू में भारतीय खेल प्राधिकरण (SAI) का हाई एल्टीट्यूड ट्रेनिंग सेंटर (High Altitude Training Centre) है, जहां पर अंतरराष्ट्रीय स्तर के एथलीटों को विशेष प्रशिक्षण दिया जाता है।
श्वसन तंत्र के कार्य
- वायु व रक्त के बीच ऑक्सीजन और कार्बन डाइऑक्साइड का आदान-प्रदान
- रक्त के माध्यम से ऑक्सीजन को प्रत्येक कोशिका तक ले जाना तथा कार्बन डाइऑक्साइड को फेफड़ों तक वापस लाना
- रक्त में अम्ल-क्षार (pH value) का संतुलन बनाना
- ध्वनि उत्पन्न करना
- गंध का पता लगाना
- वायु में उपस्थित सूक्ष्म परजीवियों से बचाव
श्वसन में अंदर की गई व बाहर छोड़ी गई वायु से संबंधित विभिन्न आयतन
1- कुल फेफड़ों की क्षमता (Total Lungs Capacity – TLC)
कुल फेफड़ों की क्षमता हवा की वह अधिकतम मात्रा है जिसे फेफड़े बलपूर्वक पूर्ण साँस लेने के बाद धारण कर सकते हैं। यह फेफड़ों में उपस्थित समस्त वायु का योग होता है, जिसमें वह वायु शामिल है जिसे सामान्यतः सांस के रूप में अन्दर लेते हैं, तथा वह अतिरिक्त वायु जिसे एक सामान्य सांस के माध्यम से अंदर और बाहर ले सकते हैं, तथा वह वायु जो अधिकतम श्वास छोड़ने के बाद भी फेफड़ों में रह जाती है।
TLC की गणना निम्न सरल सूत्र से की जाती है👇
TLC= महत्वपूर्ण क्षमता (VC) + अवशिष्ट मात्रा (RV)
एक स्वस्थ वयस्क के लिए औसत TLC लगभग 6 लीटर (या 6000 मिली.) होती है, लेकिन यह आयु, लिंग और शरीर के आकार के आधार पर भिन्न हो सकती है।
2- टाइडल वॉल्यूम – ज्वारीय आयतन – Tidal Volume
एक सामान्य श्वास में फेफड़ों में वायु की अंदर ली गई व बाहर छोड़ी गई मात्रा को टाइडल वॉल्यूम कहते है। एक स्वस्थ पुरुष के लिए टाइडल वॉल्यूम की मात्रा 500ml और महिला के लिए 400ml होती है। जो कि 5 – 7 मिलीलीटर प्रति किलोग्राम शरीर का वजन होती है। यह एक सामान्य, आराम की साँस के दौरान अंदर या बाहर ली जाने वाली हवा की मात्रा होती है।
3- जीवनीय क्षमता (वाइटल कैपेसिटी Vital Capacity): अथवा महत्वपूर्ण क्षमता

एक बार में अधिकतम अंतः स्वसन करके पूरे जोर के साथ बलपूर्वक अधिकतम हवा बाहर निकालने की प्रक्रिया में निकली हुई हवा की मात्रा जीवनीय क्षमता (वाइटल कैपेसिटी) कहलाती है
सरल शब्दों में जीवनीय क्षमता वह अधिकतम वायु की मात्रा है जिसे व्यक्ति गहरी श्वास लेने के बाद अधिकतम बलपूर्वक बाहर निकाल सकता है।
जीवनीय क्षमता अथवा महत्वपूर्ण क्षमता अधिकतम उपयोग योग्य वायु होती है।
वाइटल कैपेसिटी फेफड़ों की कार्य क्षमता को दर्शाती है और श्वसन तंत्र की दक्षता का एक महत्वपूर्ण माप है।
एक सामान्य स्वस्थ व्यक्ति की वाइटल कैपेसिटी 4 से 5 लीटर तक हो सकती है
वाइटल कैपेसिटी को Respirometer (रेस्पाइरो मीटर) से नापा जाता है
Vital Capacity = Tidal Vol. + Complementary air + Supplementary Air
4- पूरक वायु (Complementary Air): को Inspiratory Reserve Volume – IRV भी कहा जाता है
वह वायु की वह अतिरिक्त मात्रा होती है जिसे सामान्य अंतःश्वसन (normal tidal inspiration) के बाद भी बलपूर्वक फेफड़ों में अधिकतम रूप से अंदर खींची जा सकती है।
5- अनुपूरक वायु (Supplementary Air): को Expiratory Reserve Volume – ERV भी कहते हैं
वह वायु की मात्रा जो सामान्य श्वास-त्याग (normal tidal expiration) के बाद भी बलपूर्वक फेफड़ों से बाहर निकाली जा सकती है।
6- अवशिष्ट आयतन (Residual Volume – RV):
वह वायु की मात्रा जो अधिकतम बलपूर्वक श्वास-त्याग (forceful expiration) के बाद भी फेफड़ों में हमेशा बची रहती है। दूसरे शब्दों में, यह वह वायु है जो कभी भी पूरी तरह बाहर नहीं निकलती, जिससे अल्विओलाई (alveoli) हमेशा खुले रहते हैं। यह फेफड़ो के न्यूनतम आयतन को स्थिर रखता है, चाहे श्वास-त्याग किसी भी फेफड़ा आयतन से प्रारंभ किया गया हो।
7- Oxygen Debt (ऑक्सीजन ऋण) —
जब हम व्यायाम शुरू करते हैं, तो हमारी मांसपेशियों को बहुत अधिक ऊर्जा की आवश्यकता होती है इसलिए शरीर की ऑक्सीजन की मांग अचानक बढ़ जाती है। शुरुआत में रक्त परिसंचरण तंत्र और श्वसन तंत्र क्रियाशील मांसपेशियों को पर्याप्त मात्रा में इतनी तेज़ी से ऑक्सीजन नहीं पहुँचा पाते हैं। परिणामस्वरूप, मांसपेशियाँ ऊर्जा उत्पादन के लिए अवायवीय श्वसन (anaerobic respiration) का सहारा लेती हैं। इस प्रक्रिया में लैक्टिक अम्ल (lactic acid) बनता है जिससे सांस फूलने लगती है, हृदय की धड़कन भी बढ़ जाती है और थकान महसूस होती है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि हमारी मांसपेशियों को जितनी ऑक्सीजन की आवश्यकता होती है उतनी ऑक्सीजन नहीं मिल पा रही होती है। यह स्थिति ही ऑक्सीजन ऋण (Oxygen Debt) कहलाती है।
ऐसा होने पर हमें शारीरिक व्यायाम को रोकना पड़ता है। जब व्यायाम रुक जाता है, तब शरीर रिकवरी करने के लिए सामान्य श्वास लेने की तुलना में अधिक तेज़ी से और गहराई से श्वास लेने लगता है। यह अतिरिक्त ली गई ऑक्सीजन ही ऑक्सीजन ऋण को चुकाने में उपयोग होती है। इस अतिरिक्त ऑक्सीजन का उपयोग लैक्टिक अम्ल को कार्बन डाइऑक्साइड और पानी में बदलने में और रक्त में ऑक्सीजन की सामान्य मात्रा को बहाल करने में तथा मांसपेशियों में जमा ATP और क्रिएटिन फॉस्फेट को फिर से भरने में होता है।

सरल शब्दों में ऑक्सीजन ऋण वह अतिरिक्त ऑक्सीजन की मात्रा है जो कि शरीर को व्यायाम के बाद रिकवरी करने के लिए चाहिए होती है ताकि मांसपेशियों में जमा लैक्टिक अम्ल टूट सके, ऊर्जा भंडार फिर से भर सकें और शरीर सामान्य स्थिति में लौट आए।
ऑक्सीजन ऋणता को EPOC (Excess Post-exercise Oygen Consumption) भी कहा जाता है
ऑक्सीजन ऋणता का महत्त्व:
- ऑक्सीजन ऋण शरीर की पुनर्प्राप्ति (recovery) प्रक्रिया का संकेत है।
- यह बताता है कि शरीर ने व्यायाम के दौरान कितनी अवायवीय ऊर्जा का उपयोग किया।
- इसका अधिक होना यह दर्शाता है कि शरीर पर अधिक थकान या ऑक्सीजन की कमी हुई।
8- सेकेंड विंड (दूसरी हवा) (Second Wind)
जब हम तेज गति के साथ कोई व्यायाम करना प्रारंभ करते हैं तो व्यायाम के प्रारंभ में कुछ ही समय के बाद हम अचानक बहुत अधिक थकान का अनुभव करने लगते हैं तथा सांस भी बुरी तरह फूलने लगती है, हाथ और पैरों में भारीपन का अनुभव होता है। और ऐसा प्रतीत होता है कि हम इस व्यायाम को जारी नहीं रख पाएंगे।
परन्तु यदि थोड़े और अधिक समय हम थकान को सहते हुए व्यायाम करना जारी रखते हैं तो थोड़ी देर बाद ऐसी स्थिति आती है कि हम सहजता का अनुभव करने लगते हैं तथा थकान सांस फूलना और हाथ पैर का भारीपन धीरे-धीरे सामान्य होने लगता है और हम सफलतापूर्वक व्यायाम करनाजारी रखते हैं। इसी स्थिति के शरीर द्वारा सेकेंड विंड प्राप्त करना कहा जाता है।

परिभाषा
“Second Wind” एक ऐसी अवस्था है, जब व्यायाम की प्रारंभिक थकान या सांस फूलने के बाद अचानक शरीर को नई ऊर्जा और सहजता का अनुभव होता है। इस अवस्था में व्यक्ति को व्यायाम करना पहले की अपेक्षा आसान और अधिक प्रभावी लगता है।
सेकंड विंड (Second Wind) वह चरण है जिसमें लंबे समय तक व्यायाम करते हुए शरीर प्रारंभिक थकान को पार कर लेता है और एक अधिक कुशल शारीरिक स्थिति प्राप्त करता है, जिससे कार्य करने की क्षमता और सहनशक्ति बढ़ जाती है।
सेकंड विंड प्रक्रिया का Physiological Explanation निम्नवत् है
1. प्रारंभिक चरण (Initial Phase):
व्यायाम शुरू करते ही मांसपेशियों को अधिक ऑक्सीजन की आवश्यकता होती है। उस समय हृदय व श्वसन तंत्र इतनी तेजी से अनुकूल (adjust) नहीं हो पाते, जिससे ऑक्सीजन की कमी (Oxygen Deficit) होती है। ऐसी स्थिति में शरीर को एनएरोबिक मेेंटाबॉलिज्म का सहारा लेना पड़ता है जिसके परिणामस्वरूप रक्त में लैक्टिक एसिड बढ़ता है और व्यक्ति को थकान व सांस फूलने का अनुभव होता है।
2. अनुकूलन चरण (Adjustment Phase):
परन्तु थकान सहते हुए व्यायाम को जारी रखने पर कुछ समय बाद हृदय गति, श्वसन दर और रक्त प्रवाह ऑक्सीजन की मांग के अनुरूप हो जाते हैं।
ऑक्सीजन की आपूर्ति और उपयोग में संतुलन बन जाता है तथा एरोबिक मेटाबॉलिज़्म (Aerobic Metabolism) प्रमुख हो जाता है।
3. सेकंड विंड चरण (Second Wind Phase):
जब ऑक्सीजन की आपूर्ति मांग के अनुरूप या उससे अधिक हो जाती है, तो लैक्टिक एसिड का स्तर स्थिर या कम होने लगता है। शरीर एक स्थिर अवस्था (Steady State) में पहुँच जाता है। इस समय मांसपेशियाँ अधिक कुशलता से कार्य करती हैं, और व्यक्ति को थकान की अनुभूति कम होती है।
व्यावहारिक महत्व (Practical Implication)
सेकंड विंड का अनुभव विशेष रूप से लंबी दूरी के खेलों जैसे दौड़, साइक्लिंग या तैराकी में होता है।
खेल प्रारंभ होने से पहले अच्छी तरह वार्म अप करने तथा व्यायाम की तीव्रता धीरे धीरे बढ़ाने पर खिलाड़ी जल्दी ही सेकंड विंड प्राप्त कर बेहतर प्रदर्शन कर सकता है।


