Jai Shri Ram बिनु सत्संग विवेक न होई
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जिसका मन निर्मल है..
निर्मल मन जन सो मोहि पावा
मोंहि कपट छल छिद्र न भावा..
नारे नही, भीड़ का शोर नही। प्रचार प्रसार, दिखावा और ढोंग नही। सिर्फ वही मुझे पा सकता है,
सिर्फ वही मुझे ला सकता है..
जिसका मन निर्मल हो।
कपट, छल-छिद्र मुझे नही भाते। अपना कर्म शुद्धता से करो, अपना धर्म, अपनी जिम्मेदारी, निष्ठा से, बिना कपट के निबाहो।
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क्योकि रामराज्य वहीं हो सकता है, जहां पर किसी को शारीरिक, मानसिक और भौतिक ताप नही है। जहां, किसी की वजह से, किसी को संताप नही।
दैहिक दैविक भौतिक तापा।
राम राज नहिं काहुहि ब्यापा॥
सब नर करहिं परस्पर प्रीती।
चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती॥
जहां सब लोग एक-दूसरे के प्रति परस्पर प्रेम और करुणा रखते हैं। जो समाज के लिए बनाये गए, बताये गए नियमों का निरंतर पालन करते हैं।
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मर्यादा पुरुषोत्तम का अनुचर होने का प्रण हो, रामलला के स्पर्श का मन हो, तो सवर्प्रथम मर्यादाओं का सम्मान करना सीखो।
तुम्हे ख्याल रहे, कि जहां सुबुद्धी होगी, वही हर तरह तरह की सम्पत्ति होगी, सुख होगा, सम्पन्नता होगी।
जहाँ सुमति तहँ संपति नाना।
जहाँ कुमति तहँ बिपति निदाना
और जहां कुबुद्धि होगी, छल, ठगी, झूठ का बोलबाला हो, वहाँ की विपदाओं का कोई निदान सम्भव नही।
देखो, तुम्हारे आसपास सुख अधिक है, या विपत्तियां ज्यादा?? सम्पत्ति से घिरे या, या चिताओं से।
बस छोटा सा परीक्षण तुम्हारे व्यक्तित्व का पैमाना है। अपने दोष को पहचानो, उसे दूर करो।
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अगर सचमुच सुबुद्धि चाहिए, तो सबसे पहले दुष्टों से, झूठो से, द्वेष और ताप फैलाने वालों से दूर हो जाओ।
शीघ्र अच्छी संगत खोजो। उसके बिना तो विवेक न जागेगा।
बिनु सत्संग विवेक न होई।
राम कृपा बिनु सुलभ न सोई॥
सठ सुधरहिं सत्संगति पाई।
पारस परस कुघात सुहाई॥
पर जिस पर मेरी कृपा न हो, जो अशुद्ध विचार, शठ छलिया, अमर्यादित, उसे तो अच्छा साथ भी न मिले।
सही साथ, सिर्फ रामकृपा से मिलेगा। जिस पर मेरा अनुग्रह हो..केवल उसे उचित संगी साथी मिलेंगे।
और जब सत्संग मिले, तो दुष्ट भी यूँ सुधर जाएगा, जैसे पारस के आघात से लोहा, सोने में बदल जाता है।सुंदर हो जाता है।
और तब, जिसका हृदय शुद्ध हो, इरादों में छल, जिह्वा पर असत्य न हो। जो अहंकार से मदमत्त न हो, जिसे धन या सत्ता का की चकाचौंध की लालसा न हो,
उन्हीं के हृदय में मैं बस पाऊंगा। वहां रह जाऊंगा। वो हृदय, राम का मंदिर होगा। रामलला वहीं विराजेंगे।
जिनके कपट, दम्भ नहिं माया।
तिनके ह्रदय बसहु रघुराया॥
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– जैसा उन्होंने गोस्वामी तुलसीदास को बताया।
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🙏❤🚩
*राम नाम मनिदीप धरु, जीह देहरीं द्वार।*
*तुलसी भीतर बाहेरहुँ, जौं चाहसि उजिआर॥*
तुलसी कहते हैं कि यदि तू भीतर और बाहर दोनों ओर प्रकाश (लौकिक एवं पारमार्थिक ज्ञान) चाहता है तो राम नाम के दीप को अपनी देहरी पर हमेशा जलाए रख अर्थात् अपनी देह की देहरी जीभ पर हमेशा राम-नाम का सुमिरन रखना। इससे तुम्हारे भीतर और बाहर दोनों और चेतना का उजाला रहेगा।
सब जानत प्रभु प्रभुता सोई।तदपि कहें बिनु रहा न कोई।।
रामहि केवल प्रेमु पिआरा। जानि लेउ जो जान निहारा॥
बहुत सार्थक टिप्पणी
सादर प्रणाम
खलों को समर्पित श्रीरामचरितमानस की कतिपय चौपाइयां~
बहुरि बंदि खल गन सतिभाएँ। जे बिनु काज दाहिनेहु बाएँ।।
पर हित हानि लाभ जिन्ह केरें। उजरें हरष बिषाद बसेरें।।
अर्थात अब मैं सच्चे भाव से दुष्टों को प्रणाम करता हूँ, जो बिना ही प्रयोजन, अपना हित करने वाले के भी प्रतिकूल आचरण करते हैं. दूसरों के हित की हानि ही जिनकी दृष्टि में लाभ है, जिनको दूसरों के उजड़ने में हर्ष और बसने में बहुत दुख होता है।
हरि हर जस राकेस राहु से। पर अकाज भट सहसबाहु से।।
जे पर दोष लखहिं सहसाखी। परहित घृत जिन्हके मनमाखी।।
अर्थात जो हरि और हर के यश रूपी पूर्णिमा के चन्द्रमा के लिये राहु के समान हैं अर्थात् जहाँ कहीं भगवान विष्णु या शंकर के यश का वर्णन होता है, उसी में वे बाधा देते हैं और दूसरों की हानि पहुंचाने में ऐसे लोग इतना परिश्रम करते है मानो हजार भुजाओं से काम कर रहें हों। जो दूसरों के दोषों को हजार आँखों से देखते हैं और दूसरों के हित रूपी घी के लिये जिनका मन मक्खी के समान है, अर्थात जिस प्रकार मक्खी घी में गिरकर उसे खराब कर देती है और स्वयं भी मर जाती है, उसी प्रकार दुष्ट लोग दूसरों के बने-बनाये काम को अपनी हानि करके भी बिगाड़ देते हैं।
तेज कृसानु रोष महिषेसा। अघ अवगुन धन धनी धनेसा।।
उदय केत सम हित सब ही के। कुंभकरन सम सोवत नीके।।
अर्थात जो तेज दूसरों को जलाने वाले ताप में अग्नि और क्रोध में यमराज के समान हैं, पाप और अवगुण रूपी धन में कुबेर के समान धनी हैं, दुष्टों की उन्नति सभी के हित का नाश करने के लिये केतु पुच्छल तारे के समान हैं, ऐसे लोगों के कुम्भकर्ण की तरह सोते रहने में ही भलाई है। भाव यह है कि इनका ऐश्वर्यहीन, दरिद्र, दुखी होकर दबे पड़े रहना यानि सोते रहना ही जगत के लिए हितकारी है।
परअकाजु लगि तनु परिहरहीं। जिमि हिम उपल कृषीदलि गरहीं।
बंदउँ खल जस सेष सरोषा। सहस बदन बरनइ पर दोषा।।
अर्थात जैसे ओले खेती का नाश करके अपने आप ही गल जाते हैं, वैसे ही वे दूसरों का काम बिगाड़ने के लिये अपना शरीर तक छोड़ देते हैं। मैं दुष्टों को हजार मुख वाले शेषनाग मानकर प्रणाम करता हूं, जो पराये दोषों का हजार मुखों से बड़े रोष के साथ वर्णन करते हैं। गोस्वामी तुलसीदास जी का कहने का आशय यह है कि शेषनाग जी हर्षपूर्वक हरि का यश हजार मुखों से गाते हैं और दुष्ट लोग क्रोध पूर्वक दूसरों के दोषों को ही कहते रहते हैं।
मैं अपनी दिसि कीन्ह निहोरा। तिन्ह निज ओर न लाउब भोरा।।
बायस पलिअहिं अति अनुरागा। होहिं निरामिष कबहुँ कि कागा।।
अर्थात मैंने अपनी ओर से विनती की है, परन्तु वे अपनी ओर से कभी नहीं चूकेंगे. कौओं को बड़े प्रेम से पालिये; परन्तु वे क्या कभी मांस के त्यागी हो सकते हैं? कदापि नहीं। खलउ करहिं भल पाइ सुसंगू। मिटइ न मलिन सुभाउ अभंगू॥ दुष्ट भी कभी-कभी उत्तम संग पाकर भलाई करते हैं, परन्तु उनका कभी भंग न होने वाला मलिन स्वभाव नहीं मिटता॥ लखि सुबेष जग बंचक जेऊ। बेष प्रताप पूजिअहिं तेऊ॥
उघरहिं अंत न होइ निबाहू। कालनेमि जिमि रावन राहू॥
भावार्थ-
जो (वेषधारी) ठग हैं, उन्हें भी अच्छा (साधु का सा) वेष बनाए देखकर वेष के प्रताप से जगत पूजता है, परन्तु एक न एक दिन वे चौड़े आ ही जाते हैं, अंत तक उनका कपट नहीं निभता, जैसे कालनेमि, रावण और राहु का हाल हुआ ॥
और अंततः~~
बंदउँ संत असज्जन चरना। दुःखप्रद उभय बीच कछु बरना॥
बिछुरत एक प्रान हरि लेहीं। मिलत एक दुख दारुन देहीं॥2॥
अर्थात अब मैं संत और असंत दोनों के चरणों की वन्दना करता हूँ, दोनों ही दुःख देने वाले हैं, परन्तु उनमें कुछ अन्तर कहा गया है। वह अंतर यह है कि एक (संत) तो बिछुड़ते समय प्राण हर लेते हैं और दूसरे (असंत) मिलते हैं, तब दारुण दुःख देते हैं। अर्थात् संतों का बिछुड़ना मरने के समान दुःखदायी होता है और असंतों का मिलना।
सभी ईर्ष्यालु और खलों को समर्पित।। निश्चय ही ऐसे लोग मेरी मित्र सूची में नहीं हैं। यदि हैं तो वे मुझसे विदा ले सकते हैं। ऐसे ही लोग प्रभु श्रीराम के काज के भी निंदक बने हुए हैं।
रत्नाकर दुबे
असिस्टेंट प्रोफेसर
राजेंद्र प्रसाद पीजी कॉलेज मीरगंज बरेली
ॐ दाशरथये विद्महे, सीता वल्लभाय धीमहि, तन्नो रामा: प्रचोदयात्.